वक्त ने करीब तीन साल पहले मजबूर कर दिया था एक अनजान परिवार को अपने परिवार का हिस्सा बनाने के लिए....तीन सालो में बहुत कुछ मुझे उनसे मिला और बहुत कुछ शायद उन्हें भी मुझ से मिला हो ...पर नही मिला तो वो था मेरा और उस परिवार का स्वभाव .... विचारो में एकरूपता जो इन तीन सालो में कभी भी नही आ पाई ...उन्हें लगता था की मैं हिटलर हू...तानाशाह हू...और मुझे लगता था की वे चापलुश और स्वार्थी लोग है....विचारो की इन्ही गड़बड़ झाले में हम तीन सालो तक साथ रहे.....दोनों ही तरफ से अविश्वाश के साथ ..... तीन साल बाद अचानक विस्फोट हुआ..... सब कुछ अलग हो गया... अब वो और मैं या फिर यूँ कहे की हम दोनों परिवार नदी के दो किनारे बन गए है....जो कभी एक नही हो सकते....इस दूरी का मुझे कोई गिला या शिकवा नही है....न ही मुझे रिश्ते की इस टूटन पर कई अफसोस है.....पता नही क्यों ऐसा है....? वरना रिश्ते के टूटने पर गम होना चाहिए.....दर्द होना चाहिए.....पर .... मेरे साथ ऐसा कुछ भी नही है.....अब लगता है की उनके दूर होने पर भी खुशी का मेरे पास यु ही रहना साफ करता है की हमारे बीच में शायद कोई रिश्ता था ही नही.... हम मात्र वक्त के मिलाने पर मिले हुए अनजान लोग थे....जो वक्त आने पर अलग-अलग हो गए........ या फिर हो सकता है मुझे रिश्तो की कदर करनी नही आती....पर जो भी हो मैं अपने-आप से खुश हूँ .... और यही कारण है की मेरी खुशिया हरदम मेरे साथ रहती है......
अब आप क्या सोचते है?
हमारे रिश्ते बने थे या नही?
मैं खुश हूँ ....इसका कारण ये तो नही की मैं इस पहले रिश्ते को वजन मान कर ही कुलीपना कर रहा था?
या फिर मुझे वाकई में रिस्तो की कदर नही है?
............आप छाए जो भी सोचे ....पर मुझे लगता है की मैं खुश हूँ -इसलिए मैं कभी ग़लत नही था......