Wednesday, 16 February 2011

स्कूलों में फैयरवेल पार्टी कल्चर हमारे समाज के लिए घातक

किसी भी समाज या राष्ट्र का निर्माण का कार्य शिक्षा पद्धति करती आई है। शिक्षक को भारतीय समाज में भगवान तुल्य स्थान दिया गया है। इसी प्रकार विद्यालयों को मंदिर का दर्जा सदियों से हमारे यहां दिया जाता रहा है। परंतु पिछले कुछ वर्षों से हमारा शिक्षक समाज अपनी पद्धति को छोड़कर विदेशी पद्धति के हाथों की कठ्पुतली बनकर रह गया है। आधुनिकता की दौड़ में हमारे समाज व राष्ट्र की नींव बनाने वाले शिक्षक भी अंधे हो गए है। शिक्षा के मंदिर में अब 'चरित्र निर्माणÓ मात्र शब्द भर बनकर रह गया है। जबकि चरित्र पतन की सारी व्यवस्था शिक्षा के मंदिर में मिल रही है। स्कूलों में फरवरी का माह 'फैयरवेल पार्टीÓ का होता जा रहा है। यह पार्टी कल्चर हमारी शिक्षा व्यवस्था का हिस्सा नहीं है। यह हमारे समाज ने पश्चिम से उठाई है। स्कूलों में आया पार्टी कल्चर हमारे बच्चों को चरित्र पतन की तरफ धकेलने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा है। फैयरवेल के नाम पर स्कूलों में फुहड़ता का जो नंगा नाच होता है-वह सभ्य समाज के लिए एक शर्म का विषय है। स्कूलों में पार्टी के दिन डीजे लगाया जाता है। इस डीजे पर छात्र-छात्राएं जिन गानों पर शिक्षकों के समक्ष नृत्य करते है वह मर्यादा वहिन ही होते हैं। हमारी संस्कृति पर चोट तो उस समय और भी गहरी हो जाती है-जब शिक्षक भी इन पार्टियों में विद्यार्थियों के साथ ठुमके लगाने लगते हैं। यहां पर आकर गुरु और शिष्य के सारे पवित्र रिश्ते तार-तार हो जाते हैं। इसके बाद गुरु-शिष्य मित्रवत् हो जाते हैं। यहां से विद्यार्थी शिक्षकों के सम्मान के स्थान पर उन्हें दोस्तों की तरह पुकारने भी लगते हैं-उनके साथ बैठकर खना-पीना और अमर्यादित मजका करना भी आम बात हो जताी है। इसके बाद जो होता है-उसे हम चरित्र पतन का प्रथम अध्याय कह सकते हैं। इसके बाद आरम्भ होते है बेतुके गेम। ये गेम भी मर्यादाओं को समाप्त करने में अह्म भूमिका निभाते है। कुछ क्षणों के आनंद के लिए हमारा शिक्षक वर्ग संस्कृति पतन में अपना योगदान देने में पीछे नहीं हटते। कई बार देखने को मिलता है कि कई स्कूलों की फैयरवेल पार्टी के दौरान विद्यार्थी वर्ग नशे का सेवन भी कर लेते हैं। इसके बाद इन पार्टियों में हंगामा होना भी अब आम बात होने लगी है। फैयरवेल पार्टियों में विवाह-शादी के तर्ज पर स्टाले तक लगने लगी है। छात्राएं इन पार्टियों में जाने के लिए ब्यूटीपार्लर तक में जाती है। जब नौवंी कक्षा से छात्राएं ब्यूटीपार्लर से सजधज कर स्कूलों में जाने लगे तो क्या उम्मीद लगाई जा सकती है-इस पीढ़ी से। फैयरवेल सहित स्कूलों में होने वाली प्रत्येक पार्टी का खर्चा विद्यार्थी ही वहन करते है। स्कूल संचालक व शिक्षक इस खर्चे में अंशदान भी नहीं देते। आखिर स्कूलों में 'फैयरवेल पार्टीÓ की आवश्यकता ही क्यों पड़ती है। इस पार्टी से बच्चों को कौन-सी शिक्षा मिलती है। इस बारे में कई बार स्कूल संचालको द्वारा तर्क दिया जाता है कि विद्यार्थियों को विदाई देने के लिए उनके सम्मान में इस पार्टी का आयोजन किया जा रहा है। यदि इन स्कूल संचालकों से पूछा जाए कि वे इस पार्टी में अपनी तरफ से कितने पैसे देते हैं-तो उनके पास कोई जवाब नहीं होता। कहीं स्कूल संचालक मात्र 10-20 हजार रुपए के मिलने वाले गिफ्ट के लालच में तो इस कल्चर को बढ़ावा तो नहीं दे रहे हैं। यदि ऐसा नहीं है तो ये स्कूल संचालक फैयरवेल पार्टी बच्चों को अपनी तरफ से क्यों नहीं देते। बच्चों से बड़े-बड़े गिफ्ट लेने वाले स्कूल संचालक अपनी तरफ से प्रत्येक बच्चें को कोई भी गिफ्ट क्यों नहीं देते। इससे भी बढ़कर घातक बात तो यह है कि अभिभावक भी स्कूलों में आए पार्टी कल्चर का विरोध नहीं कर रहे हैं। वे बच्चों को इस आयोजन के लिए बेझिझक पैसे देते हैं। बाद में बड़े होने पर ये अभिभावक इन बच्चों से काफी कुछ करने की उम्मीद करते हैं। पार्टी कल्चर में शिक्षित हुए बच्चें कभी भी मां-बाप की सोच पर खरा नहीं उतर सकते। यह बात अब तथ्यों से साफ होने लगी है। क्यों न अपने स्तर पर स्कूलों में होने वाली इन पार्टियों का विरोध किया जाए और शिक्षा व्यवस्था को पार्टी कल्चर से बाहर निकाला जाए। विदाई देने के कार्यक्रम स्कूलों में हवन-तिलक और शुभकामनाओं में बदला जाए। इससे न केवल बच्चों में संस्कार पैदा होंगे बल्कि पार्टियों के नाम पर होने वाले नजायज खर्चे की भी बचत होगी। स्कूल संचालकों को इस विषय पर मंथन करना होगा कि वे बच्चें के कोरे हृदय पर क्या लिख रहे हैं। यदि समय रहते स्कूल संचालक इस विषय पर चिंतन करते है तो आने वाले समय में भी उनका सम्मान बना रहेगा। वर्ना वो दिन दूर नहीं जब शिक्षक का अपमान स्कूलों में सरेआम होने लगे और इसका दोषी वर्तमान के शिक्षकों को दिया जाने लगे। क्यों ना अब हम इस निर्थक कल्चर को छोड़कर पुन: अपनी सभ्यता की तरफ लौट आए-ताकि शिक्षक वर्ग को पहले की तरह ही भगवान का दर्जा प्राप्त हो सके।

Friday, 1 January 2010

2010


उगते सूरज को सलाम करने वालो के समाज में २०१० का स्वागत.....
२०१० के आने से पहले जिस तरह से लोगो में इसके स्वागत को लेकर उत्साह देखने को मिला ....वो काफी हद तक हमारी अक्तार्फी सोच को ही उजागर करता है.....
हमारे राजनेताओ की जीवन शैली का असर अब आम जन पर दिखने लगा है....हमारे लोकतंत्र में सदा से आने वाले का स्वागत किया जाता है और जाने वाले से किनारा.....कुछ ऐसा ही नए साल का जश्न मनाने में लगे लोगो ने किया....एक साल तक जो उनके सुख-दुःख का साथी रहा उसे एक पल में ही भुला दिया....पुरे एक साल तक जिसने दुनिया के रंगों को हमारे सामने पल-पल प्रस्तुत किया उसे एक ही पल में भुला देना, हमारी स्वार्थ प्रवृति का नमूना नहीं तो और क्या है?
पिछले बीस सालो से हमारे समाज में आ रही यही परवर्ती हमारे नैतिक मूल्यों के विनाश का कारन बनती जा रही है....हम लोगो ने चकाचौंध से भरी पाश्चात्य जीवन शैली में खोकर स्वयं को सस्ती लोकापिर्यता की वस्तुभर बना लिया है.....अब न हमारे पास संस्कार बचे है और न ही संस्कार देने वाली माताएं अब हमारे समाज में बची है....ऐसे में अब खोखली हो चुकी जीवनशैली में हमारे समाज में मानवता कब तक जीवित रहेगी ये देखने वाली बात है....
२००९ का आभारी है की उसने हमारे समाज से मानवता का पुर्न्ना विनाश नहीं होने दियता दिया....
और २०१० से उम्मीद है की वो भी इस क्रम को कायम रखेगा.....

Thursday, 12 November 2009

सूरज अस्त हो रहा है






सूरज अस्त हो रहा है हमारे समाज का


सूरज अस्त हो रहा है हमारे संस्कारो का


सूरज अस्त हो रहा है हमारे आने वाले कल का


kon है इसका dosi


शायद हम और तुम


हमने नाम और पैसे की भूख me


bachche को nokar के hawale कर


उसकी ma को bhej दिया noukari करने


vo सुबह से sham तक घर से bahar रहती है


आते समय kurkare la कर bete को दे


karwa देती उसे ahasas की ma उसे करती है प्यार


ये kurkure का प्यार ही कर रहा है


आने वाले कल का surya अस्त


ये noukari वाली ma ही कर रही है


आने वाले कल को संस्कार vahina


nokar के hatho pala हुआ हमारा कल


kesa होगा.............?


kalpana करने से की kamp jati है ruh


sochata hu chand paiso के लिए


ma kese dur हो jati है अपने bachche से........


सच......


सूरज अस्त हो रहा है हमारे कल का


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Sunday, 4 October 2009

मेरी खुशी ...... मेरे साथ .......


वक्त ने करीब तीन साल पहले मजबूर कर दिया था एक अनजान परिवार को अपने परिवार का हिस्सा बनाने के लिए....तीन सालो में बहुत कुछ मुझे उनसे मिला और बहुत कुछ शायद उन्हें भी मुझ से मिला हो ...पर नही मिला तो वो था मेरा और उस परिवार का स्वभाव .... विचारो में एकरूपता जो इन तीन सालो में कभी भी नही आ पाई ...उन्हें लगता था की मैं हिटलर हू...तानाशाह हू...और मुझे लगता था की वे चापलुश और स्वार्थी लोग है....विचारो की इन्ही गड़बड़ झाले में हम तीन सालो तक साथ रहे.....दोनों ही तरफ से अविश्वाश के साथ ..... तीन साल बाद अचानक विस्फोट हुआ..... सब कुछ अलग हो गया... अब वो और मैं या फिर यूँ कहे की हम दोनों परिवार नदी के दो किनारे बन गए है....जो कभी एक नही हो सकते....इस दूरी का मुझे कोई गिला या शिकवा नही है....न ही मुझे रिश्ते की इस टूटन पर कई अफसोस है.....पता नही क्यों ऐसा है....? वरना रिश्ते के टूटने पर गम होना चाहिए.....दर्द होना चाहिए.....पर .... मेरे साथ ऐसा कुछ भी नही है.....अब लगता है की उनके दूर होने पर भी खुशी का मेरे पास यु ही रहना साफ करता है की हमारे बीच में शायद कोई रिश्ता था ही नही.... हम मात्र वक्त के मिलाने पर मिले हुए अनजान लोग थे....जो वक्त आने पर अलग-अलग हो गए........ या फिर हो सकता है मुझे रिश्तो की कदर करनी नही आती....पर जो भी हो मैं अपने-आप से खुश हूँ .... और यही कारण है की मेरी खुशिया हरदम मेरे साथ रहती है......
अब आप क्या सोचते है?
हमारे रिश्ते बने थे या नही?
मैं खुश हूँ ....इसका कारण ये तो नही की मैं इस पहले रिश्ते को वजन मान कर ही कुलीपना कर रहा था?
या फिर मुझे वाकई में रिस्तो की कदर नही है?
............आप छाए जो भी सोचे ....पर मुझे लगता है की मैं खुश हूँ -इसलिए मैं कभी ग़लत नही था......

Friday, 14 August 2009

दुविधा प्रसाद जी......


सुबह होते ही मेरे दोस्त दुविधा प्रसाद जी आ टपके...टपके इस लिए बोल रहा हू की वो कभी भी कहीं भी बुलावे परआते-जाते नही...बल्कि अचानक टपक पड़ते है...पुरे महौले की चिंता....समाज की चिंता...धर्म की चिंता...देश कीचिंता...विदेश की चिंता...चिंता ही चिंता है उनके पास में...चिंता इतनी की उनका पुरा जीवन ही अब चिंता बन गयाहै...पास की लड़की ने प्रेम - विवाह किया चिंतित हुए दुविधा प्रसाद जी...मुंबई में हमला हुआ तो परेशान दुविधाप्रसाद जी .... बीजेपी की हार हुई दुखी हुए दुविधा प्रसाद जी...दाल-चीनी के भाव बढे रातभर सोये नही दुविधा प्रसादजी...देश में बिजली का संकट आया तो पसीने-पसीने हुए दुविधा प्रसाद जी...आस्ट्रेलिया में हमले हुए भारत में कम्कम्पाये दुविधा प्रसाद जी....सरकार ने सम्लैगिता पर बयान दिया धर्म संकट में पड़े दुविधा प्रसादजी...haryana की खाप पंचायत ने फैसला दिया सहमे गुजरात में बैट्ठे दुविधा प्रसाद जी.... ये दुविधा प्रसाद अकेले मेरे ही दोस्त नही है...हर किसी के पास ऐसे एक-आध दोस्त होते है....जिनकी पुरी जिन्दगी ही चिंता में बीत जाती है...चिंता भी कैसी ...... जिसका उसके जीवन से कोई लेना-देना नही होता और ही उसके पास उन चिन्ताओ का कोई हल होता है...एक दिन वो इसी चिंता में दुनिया को अलविदा कह जाते है... बिना किसी अर्थ के पशु का जीवन जी कर चले जाते है...जीवन से दूर....जीवन जीने वाले हर आदमी में दुविधा प्रसाद चौकडी मर के बैटते रहते है.....अब आप में दुविधा प्रसाद बैट्ठे है या नही- ये देखना आपका काम है.....



Sunday, 26 July 2009

जिन्दगी




एक मुस्कराती-सी तस्वीर है जिन्दगी


कभी सवाल तो कभी जवाब है जिन्दगी


किसी स्कूल के बच्चे से पूछो तो


गुणा और भाग है जिन्दगी .....


किसी के लिए कांटे तो किसी के लिए फूल




किसी के लिए शिकायत तो किसी के लिए शकुन


कोई नही हरदम खुश यहाँ पर


पति-पत्नी की रोज की लढाई-प्यार है जिन्दगी ....

Tuesday, 20 January 2009

इज्जत...


अपनी-अपनी सोच होती है। अपने-अपने तर्क होते है। परन्तु सोच और तर्क ... उस समय धरे के धरे रह जाते है जब कोई निरपराध को सजा मिल जाती है। मुझे आज तक एक घटना रात को अक्सर जगा देती है...विचलित कर देती है। मेरे साथ एक लड़की पढ़ती थी... अनामिका बोलते थे सभी उसे...हवा का झोंका थी...तैरती रहती थी सदा मधुर संगीत की तरह.... । हमसे दो कैलास नीचे एक लड़का .... उसे दिल ही दिल चाहने लगा.... एक-दो बार अनामिका से बात की...उससे दोस्ती की बात कही...अनामिका ने मना कर दिया..फिर चार-पाँच बार कोशिश की....हर बार नाकाम रहा..एक दिन उसने अनामिका को कैलास के बहार रोक लिया ...और अपने हाथ की कलाई कट ली... । मैंने सब कुछ देखा और पुरी घटना को कलम से विस्तृत रूप दे समाचार बना छाप दिया....उस दिन के बाद अनामिका दिखाई नही दी... धीरे-धीरे समय बीत गया...पेपर आ गए...अनामिका अपने पिता जी के साथ आई...चुपचाप...खामोश...बिल्कुल उदास.... । हवा में तैरने वाली अनामिका के पास आकर अब हवा भी खामोशी की चादर में लिपट रही थी... । पेपर ख़त्म होने पर अनामिका मेरे पास आई और बोली..... आख़िर मेरा कसूर क्या था...? आपकी ख़बर हुई ..... लोगो ने दिल लगाकर पढ़ी और किसी की जिन्दगी दाव पर लग गई... । अनामिका के ये शब्द आज भी मुझे रात को जगा देते है... । और सोचने को मजबूर कर देते है की .... आख़िर छेड़छाड़ की ख़बर का असर पीडिता पर ही क्यों पड़ता है...? शायद ....... हमारे सभ्य समाज में आज भी नारी मात्र भोग की ही वास्तु मणि जाती है....और इज्जत की ठेकेदारी का सारा बोझ उस पर ही होतो है...... । पुरुषः तो कुछ भी करने के लिए आजाद है-गली के कुत्ते की तरह ।