Tuesday, 20 January 2009

इज्जत...


अपनी-अपनी सोच होती है। अपने-अपने तर्क होते है। परन्तु सोच और तर्क ... उस समय धरे के धरे रह जाते है जब कोई निरपराध को सजा मिल जाती है। मुझे आज तक एक घटना रात को अक्सर जगा देती है...विचलित कर देती है। मेरे साथ एक लड़की पढ़ती थी... अनामिका बोलते थे सभी उसे...हवा का झोंका थी...तैरती रहती थी सदा मधुर संगीत की तरह.... । हमसे दो कैलास नीचे एक लड़का .... उसे दिल ही दिल चाहने लगा.... एक-दो बार अनामिका से बात की...उससे दोस्ती की बात कही...अनामिका ने मना कर दिया..फिर चार-पाँच बार कोशिश की....हर बार नाकाम रहा..एक दिन उसने अनामिका को कैलास के बहार रोक लिया ...और अपने हाथ की कलाई कट ली... । मैंने सब कुछ देखा और पुरी घटना को कलम से विस्तृत रूप दे समाचार बना छाप दिया....उस दिन के बाद अनामिका दिखाई नही दी... धीरे-धीरे समय बीत गया...पेपर आ गए...अनामिका अपने पिता जी के साथ आई...चुपचाप...खामोश...बिल्कुल उदास.... । हवा में तैरने वाली अनामिका के पास आकर अब हवा भी खामोशी की चादर में लिपट रही थी... । पेपर ख़त्म होने पर अनामिका मेरे पास आई और बोली..... आख़िर मेरा कसूर क्या था...? आपकी ख़बर हुई ..... लोगो ने दिल लगाकर पढ़ी और किसी की जिन्दगी दाव पर लग गई... । अनामिका के ये शब्द आज भी मुझे रात को जगा देते है... । और सोचने को मजबूर कर देते है की .... आख़िर छेड़छाड़ की ख़बर का असर पीडिता पर ही क्यों पड़ता है...? शायद ....... हमारे सभ्य समाज में आज भी नारी मात्र भोग की ही वास्तु मणि जाती है....और इज्जत की ठेकेदारी का सारा बोझ उस पर ही होतो है...... । पुरुषः तो कुछ भी करने के लिए आजाद है-गली के कुत्ते की तरह ।

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